Gyanvapi Masjid ka kya mamla hai:-वाराणसी का ज्ञानवापी मस्जिद विवाद (Gyanvapi Masjid Controversy) इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है | अदालत के आदेश पर अब इस परिसर में सर्वे व वीडियोग्राफी की जा रही है | इस सर्वे को लेकर एक पक्ष को काफी आपत्ति है और वह अपनी आपत्ति लगातार जता भी रहा है |
दोनों ही पक्षों को अपने-अपने दावे और अपने-अपने तर्क हैं | पूरे देश की निगाहें अब इस सर्वे पर टिकी हुई है | अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ होने के बाद से ज्ञानवापी मस्जिद का मामला भी लगातार उठ रहा है | आम मान्यता ये है कि इस ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण मंदिर को तोड़कर किया गया था और इसी आधार पर हिन्दू पक्ष इसपर अपना दावा जता रहा है |
ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर क्या दावे हैं:-
ज्ञानवापी मस्जिद बनारस की एक बेहद पुरानी मस्जिद है | इस मस्जिद को लेकर भी इतिहासकारों और दोनों पक्षों के लोगों के अलग-अलग दावे हैं | सबसे सामान्य और प्रचलित मान्यता ये है कि इस मस्जिद का निर्माण सन् 1664 में मुगल शासक औरंगजेब ने करवाया |
यह भी कहा जाता है कि इस मस्जिद के बनने से पहले यहां मंदिर हुआ करता था और औरंगजेब ने वह मंदिर ध्वस्त कर उसके अवशेषों का इस्तेमाल कर इस मस्जिद का निर्माण करवाया |
वहीं कुछ लोगों का कहना है कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण मुगल शहंशाह अकबर के जमाने में यानी 1585 में हुआ | अकबर ने दीन-ए-इलाही नाम से एक मज़हब की शुरुआत की थी और ये मस्जिद उसी धर्म के तहत बनवाई गई थी |
विश्वनाथ मंदिर को लेकर क्या दावे हैं:-
मंदिर के संबंध में दावा यह है कि यहां प्राचीन काल से भगवान विश्वेश्वर का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थापित है | सम्राट विक्रमादित्य ने इसके आसपास मंदिर का निर्माण किया | इसके बाद अकबर के शासनकाल में उनके दरबार के नवरत्नों में शामिल राजा टोडरमल ने इस मंदिर को भव्य रूप दिया |
लेकिन औरंगजेब ने अपने शासनकाल में इस मंदिर को तोड़े जाने के आदेश दिए | औरंगजेब के इस आदेश का जिक्र उसी काल में लिखी गई मशहूर किताब मआसिर-ए-आलमगीरी में है | ये किताब अरबी भाषा में साकी मुस्तैद खान ने लिखी है | इसकी ओरिजनल कॉपी आज भी कोलकाता की एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल में मौजूद है |
कहा जाता है कि मंदिर का एक हिस्सा नहीं तोड़ा गया और औरंगजेब के बाद इस हिस्से में पूजा-अर्चना जारी रही | जबकि मंदिर से सटी हुई जगह पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कर दिया गया |
इसके बरसों बाद इंदौर की महारानी देवी अहिल्याबाई होल्कर ने 1735 में यानी करीब सवा सौ साल के बाद यहां फिर से मंदिर का निर्माण किया | मंदिर का वर्तमान स्वरूप उसी काल का बताया जाता है | लेकिन दावा ये भी है कि विवादित ढांचे के नीचे एक विशाल स्वयंभू शिवलिंग है |
कैसे हुई इस विवाद की शुरुआत:-
यह मामला पिछले 3 दशक से ज्यादा समय से अदालत में चल रहा है | हिंदू पक्ष की ओर से दायर याचिका के मुताबिक अंग्रेजों ने साल 1928 में पूरे मामले का अध्ययन कर ये जमीन हिंदुओं को सौंप दी थी | इस आधार पर यह पक्ष ज्ञानवापी परिसर पर अपना हक मांग रहा है |
साल 1991 में सोमनाथ व्यास, रामरंग शर्मा और हरिहर पांडेय ने वादी के तौर पर प्राचीन मूर्ति स्वयंभू भगवान विशेश्वर की ओर से अदालत में मुकदमा दायर किया | इसके बाद मस्जिद कमेटी ने Places of Worship Act, 1991 का हवाला देकर इस दावे को चुनौती दी | 1993 ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे संबंध में स्टे दे दिया और यथास्थिति कायम रही |
अब ये प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट क्या है:-
1991 में केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी | उनकी सरकार में ये कानून लाया गया था | ये कानून कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले जो धार्मिक स्थल जिस रूप में था, वो उसी रूप में रहेगा | उसके साथ छेड़छाड़ या बदलाव नहीं किया जा सकता |
चूंकि अयोध्या विवाद का मामला आजादी से पहले से कोर्ट में चल रहा था, इसलिए इसे छूट दी गई थी | लेकिन ज्ञानवापी मस्जिद और शाही ईदगाह मस्जिद पर ये लागू होता है.
इस कानून में साफ है कि आजादी के समय जो धार्मिक स्थल जैसा था, वो हमेशा वैसा ही रहेगा | उसके साथ कोई बदलाव नहीं हो सकता. इसमें ये भी है कि अगर कोई ऐसा करता है तो उसे एक से तीन साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है |